समुद्र होने के नाते यहां हवाओं का बहाव बहुत तेज था। सांय-सांय का स्वर भयानक होने के पश्चात् ठण्डी-ठण्डी हवाएं देने के कारण बहुत भला लग रहा था। ऊंची-ऊंची लहरें मचल कर इस तेजी के साथ किनारे की ओर लपकतीं सी बालू पर दूर तक चली आती थीं और जब वापस जाना चाहतीं तो पलटने से पहले ही टूटकर तितर-बितर हो जाती थीं। हवाओं के इस तेज बहाव पर अपनी लटें वन्दना को क्षण-भर के लिए भी संभालना कठिन हो गया तो उसने अपना सामान समुद्र किनारे लगाया। तैराकी टोपी पहनी, फिर खड़ी होकर तैराकी कपड़े पहनने लगी। जिस समय वह तैराकी वस्त्र पहन रही थी तो रोहित के अतिरिक्त उस पर किसी भी विदेशी ने कोई ध्यान नहीं दिया। किसी ने उस पर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं महसूस की। ऐसी बातें यहां कोई महत्त्व नहीं रखतीं। वन्दना रोहित की ओर पीठ करके अपना टॉप बदलती हुई तैराकी चोली पहन रही थी जिसे केवल रोहित ही देख रहा था, चोर दृष्टि से। उसकी आंखों में किसी प्रकार की वासना नहीं थी बल्कि वन्दना के सफेद संगमरमर जैसे तराशे सुन्दर शरीर की प्रशंसा थी – प्यार भरी प्रशंसा। तब भी जब वन्दना ने इस बात का एहसास किया कि रोहित उसे देख रहा है तो वह अपनी चोली का बटन लगाती हुई रोहित की ओर पलट पड़ी।
उसने रोहित को प्यार से डांटा, ‘वेरी बै–ड।’ उसने प्यार से रोहित पर आंखें निकालते हुए भी नचाईं। रोहित हल्के से मुस्करा दिया, इस प्रकार मानो यह क्या उसे तो वन्दना को शीशे में उतार कर आरपार भी देखने का पूरा अधिकार था। उसने लपककर वन्दना का हाथ पकड़ना चाहा ताकि उसे बांहों में समाकर छाती से लगा ले। परन्तु वह उसके इस शरारत भरे इरादे को भांप चुकी थी। वह तुरन्त पीछे हट गई। फिर उसे जबान बाहर निकाल कर चिढ़ाती हुई वह चहकती तथा पलटकर चौकड़ियां भरती समुद्र की ओर भाग खड़ी हुई। उस दिन वन्दना के साथ रोहित ने भी तैरने का खूब आनन्द उठाया। सागर की बड़ी-बड़ी लहरों के साथ तैरने का आनन्द ही कुछ और है। दोनों एक साथ, एक-दूसरे के समीप तैरते हुए समुद्र में काफी दूर तक निकल जाते थे। परन्तु फिर शीघ्र ही बड़ी-बड़ी लहरें उन्हें वापस बहाकर किनारे पर ला पटकती थीं, कभी एक-दूसरे से बहुत दूर तो कभी एक-दूसरे के बिल्कुल समीप। वन्दना ने समुद्र के इस खेल का आनन्द मां तथा अपने अंग्रेज सौतेले पिता के साथ पहले भी कई बार उठाया था। परन्तु जो आनन्द प्रेमी के साथ मिलता है उसकी बात ही अलग होती है। प्रेमी के संग में खण्डहर भी महल बन जाता है। नर्क स्वर्ग मालूम पड़ने
लगता है। जवान दिलों की भावनाओं की वही मांग है। शायद इसे ही प्यार कहते हैं या दीवानापन। वैसे दो जवान दिल आपस के एकान्तपन में भटक कर कोई पाप कर बैठे तो वह पाप के साथ दीवानापन भी कहलाता है, परन्तु दो दिल लाख परीक्षाएं आने के बाद भी संभल जाएं तो उसे प्यार करते हैं – सच्चा प्यार। ऐसे ही एक बार नटखट लहरों ने चिंघाड़ कर उन दोनों को किनारे बालू पर बिल्कुल एक-दूसरे के समीप ला पटका तो रोहित शरारत से जान-बूझकर वन्दना के शरीर पर गिर पड़ा। वन्दना तुरन्त उठकर घुटनों के बल खड़ी हो गई। रोहित भी वन्दना को दोनों बांहों में थामता हुआ स्वयं घुटनों के बल खड़ा हो गया। वन्दना की आंखों में उसने बहुत प्यार से झांका। वन्दना के होंठों पर एक हल्की तथा बड़ी मीठी मुस्कान थी। तैरते रहने के कारण उसकी सांसें फूल रही थीं। सांसों के उतार-चढ़ाव पर उसकी छाती भी ऊपर नीचे हो रही थी। रोहित ने देखा तो उसका दिल प्यार में मचल गया। उसने वन्दना को अपनी ओर खींचा, उसके मुखड़े को अपने मुखड़े की ओर, होंठों को होंठों की ओर। वन्दना ने भी इस बार किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की। वह स्वयं को रोहित की बांहों में समर्पित करने को तैयार हो चुकी थी। उसकी आंखों में खुमार छा रहा था। आंखों के रेशमी
डोरे कांप रहे थे। कपोलों पर उसकी भीगी लटें चिपकी हुई थीं जिन पर अटकी पानी की बूंदें धूप में मोतियों के समान टपक रही थीं। भला कौन काफिर होगा जो भगवान की बनाई इस अनुपम सुन्दरता से प्रभावित नहीं होता? रोहित ने वन्दना को अपने समीप करते हुए उसके होंठों को अपने और समीप कर लिया – समीप – और समीप – बिल्कुल समीप, यहां तक कि वन्दना की गरम-गरम सांसों की भीनी-भीनी सुगंध रोहित के कपोलों पर छाने लगी, उसके नथुनों द्वारा दिल की गहराई में उतर कर उसे मदहोश करने लगी। रोहित से अब और अधिक अपने दिल पर काबू करना कठिन हो गया। उसे अब किसी की भी चिन्ता नहीं थी, न आस-पास या दूर-दूर तक बैठे-लेटे यात्रियों की। विदेश में यूं भी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है। यहां पर इन बातों पर ध्यान देना संकीर्ण या हीन भावना का प्रतीक माना जाता है। इसलिए रोहित ने निश्चिन्त होकर वन्दना को तुरन्त खींचकर अपनी छाती से लगा लेना चाहा ताकि उसे प्यार कर ले, उसके कुंवारे होंठों की मदिरा अपने होंठों द्वारा दिल की गहराई में जज्ब करके सदा के लिए मदहोश हो जाए, शायद वह ऐसा करने में सफल हो जाता परन्तु तभी—तभी एक बड़ी लहर का समुद्री रेला आया और उन दोनों के दिल में उभरते तूफान को अपने तूफान में ले डूबा,
इस झटके के साथ कि दोनों ही एक-दूसरे से अलग होकर छिटक गए। और जब समुद्री रेला किनारे और आगे बढ़कर तितर-बितर होता हुआ वापस लौटा तो दोनों एक-दूसरे से दूर बालू पर पड़े हुए थे। अमर वन्दना को सड़क के किनारे, पत्थर की दीवार के समीप खड़ा खोया हुआ देख रहा था। बहुत देर हो गई वन्दना को वहां खड़े-खड़े तो अमर ने सोचा, वन्दना उससे बहुत नाराज है या उसे उसके साहस पर बहुत दुःख है क्योंकि उसने ऐसी आशा कभी नहीं की होगी। ऐसी हरकत को शायद उसके प्रेमी रोहित ने भी कभी नहीं की होगी। अमर ने बहुत आहिस्ता से अपनी ओर कार का गेट खोला। कार से वह नीचे उतरा। आकर वह चुपचाप वन्दना के पीछे खड़ा हो गया। वन्दना अब तक विचारों में तल्लीन थी, इस प्रकार कि उसे अमर के आने की आहट तक नहीं मिली। वन्दना की लटें हवा के बहाव पर उड़ रही थीं। आसमानी साड़ी का आंचल भी छाती से सरक कर हवा में लहरा रहा था परन्तु वन्दना को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी, शायद इस पर उसका ध्यान नहीं था। अमर एक क्षण वन्दना के पीछे उसी प्रकार चुपचाप खड़ा रहा। फिर उसने साहस बटोरकर अपने लगे में अटका थूक घोंटा। फिर बहुत दबे
स्वर में उसने कहा – ‘वन्दना जी।’ अमर ने वन्दना के समीप होते हुए भी मानो बहुत दूर से पुकारा था। वन्दना अपने विचारों से चौंकी। आंखों के सामने थिरकती अतीत की तस्वीर इस प्रकार एक झटके के साथ ओझल हो गई मानो सिनेमा के परदे पर चलती-फिरती फिल्म अचानक ही टूट गई हो। वन्दना अपनी वास्तविकता में वापस आई परन्तु उसने पलट कर पीछे नहीं देखा। एक गहरी सांस लेने के बाद उसने अपनी उड़ती लटों पर हाथ फेरा और उसी प्रकार खड़ी रही। ‘आप मुझसे नाराज हैं क्या?’ अमर ने डरते-डरते पूछा। वन्दना ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपना मुखड़ा उठाकर उसने आकाश की ओर देखा जहां सूर्य के प्रकाश के प्रतिबिम्ब पर बदलियों के काले टुकड़ों के किनारे, ताई हुई चांदी के समान चमक रहे थे। बिना कुछ कहे ही वह अपनी टांगें एक के बाद एक उठाकर पत्थर की नीची दीवार पार करने लगी तो उसकी आसमानी साड़ी लगभग घुटनों तक ऊपर उठ गई। अमर की आंखों में वन्दना की सन सफेद संगमरमर-सी तराशी हुई सुन्दर पिंडलियां इस प्रकार चमकीं मानो नील गगन में बिजली कौंध गई हो। क्षण भर के लिए अमर बिजली की इस चकाचौंध में खो गया। वन्दना पत्थर
की दीवार पार करने के बाद वहां दीवार पर बैठ गई। उसके आगे ढाई-तीन फुट बाद गहरी खाई चली गई थी। अमर वन्दना के पीछे, बगल में आकर समीप ही खड़ा हो गया। उसने फिर कहा, ‘आपने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया।’ वन्दना क्षण भर चुप रही। फिर उसने अमर की बात का उत्तर देने के बजाए स्वयं ही प्रश्न किया, ‘यहां—यहां आसपास समुद्र का किनारा नहीं है?’ ‘समुद्र का किनारा?’ अमर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, ‘आप तो यहां की रहने वाली हैं। क्या लंदन जाते ही भूल गईं कि—’ ‘आई एम सॉरी।’ वन्दना ने तुरन्त अपनी भूल का आभास किया। बोली, ‘दरअसल मैं इसे विदेश समझ बैठी थी।’ वह तुरन्त उठ खड़ी हुई। दीवार पार करके वह इस ओर, सड़क पर आई। अमर को देखा। हल्के से मुस्कराई। फिर बोली, ‘आओ चलो, हम उस झील को चलते हैं जो पहाड़ों के बीच बसी हुई है।’ वह कार की ओर बढ़ गई। अमर उसके पीछे-पीछे हो लिया। ‘कार चलाना जानते हो?’ वन्दना ने कार के समीप आने के बाद रुककर पूछा।
‘कार से अधिक चौड़ी वाली जीप चलाई है क्योंकि मुझे अपने अंग्रेज मालिक के साथ अधिकतर शिकार पर भी जाना पड़ता था।’ ‘तो फिर अब तुम ही इसे ड्राइव करो।’ वन्दना ने कार की ओर इशारा करते हुए अमर से कहा और फिर कार की स्टेयरिंग के बजाए दूसरी ओर जाकर बैठ गई। अमर को कार ड्राईव करनी पड़ गई। परन्तु उसे पूरा विश्वास हो गया कि वन्दना ने उसकी उस हरकत का बुरा नहीं माना है जो उसने होंठों तले उसकी लटें दबाकर की थी। उसके दिल को तसल्ली ही नहीं मिली बल्कि अपार प्रसन्नता भी प्राप्त हो गई। उसे वन्दना से बातें करने का उत्साह भी मिला। परन्तु उसने इसका लाभ नहीं उठाया। वन्दना की संगति ही उसके लिए एक रोमांचित वातावरण था। वन्दना की खामोशी ही इस वातावरण का संगीत था। कार अपनी गति पर चली जा रही थी। अचानक एक बहुत ही गहरा मोड़ आया। अमर बहुत वर्षों बाद इस रास्ते पर आया था इसलिए उसे इतने गहरे मोड़ का ध्यान नहीं था। शायद वन्दना भी इस गहरे मोड़ के लिए तैयार नहीं थी। इससे पहले कि कार गहरे मोड़ पर मुड़ने के बजाए सीधे सड़क के किनारे बनी पत्थर की दीवार से जा टकराए,
अमर ने तुरन्त कार की स्टेयरिंग को गहरे मोड़ पर जाती सड़क की ओर घुमा दिया। अमर की सतर्कता के कारण किसी प्रकार की दुर्घटना नहीं हुई। परन्तु वन्दना झटका खाकर उसके कंधों पर अवश्य गिर पड़ी। कार सीधे रास्ते पर होकर चलने लगी। वन्दना ने तब भी अमर के कन्धे पर से सिर नहीं हटाया बल्कि उसने अमर की पीठ से होकर उसका वह कंधा थाम लिया जहां वह सिर रखे हुए थी। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। अमर के कंधे पर स्वयं को सदा के लिए सुरक्षित समझकर शायद वह प्यार के सपने में खो जाना चाहती थी। अमर ने गर्दन थोड़ी घुमाकर तथा सिर थोड़ा नीचे झुकाकर वन्दना को देखा। वह मानो स्वयं को मन और मस्तिष्क सहित उसके हवाले कर चुकी थी। उसके कंधे से वन्दना का सिर उठाने का कोई विचार नहीं था, अमर को ऐसा लगा मानो उसे सब-कुछ मिल चुका है, सारे संसार का सुख, चैन ओर प्रसन्नताएं। अब से कुछ भी नहीं चाहिए था। वन्दना ने उसके बिना मांगे ही उसे सब-कुछ दे दिया है, संसार की सबसे बड़ी दौलत, वह कीमत जिसको प्राप्त करने के लिए वह अब तक अपना काम पूरा करने का प्रयत्न करता रहा था। परन्तु जो अब तक अधूरा था।
कुछेक दिन और बीत गए। वन्दना और अमर एक-दूसरे के बिल्कुल समीप आ गए। अब दोनों कहीं भी जाते, साथ ही जाते। एक-दूसरे की मानो छाया बन गए थे। अब वन्दना अपने दादा के सोने के बाद गई रात तक कोठी में बैठी अमर से बातें करती रहती। प्यार में जितनी भी बातें होतीं, कम थीं। अधिकतर वन्दना ही बातें करती क्योंकि उसके सामने अमर को हीन भावना का शिकार होने के बाद चुप ही रह जाना पड़ता था। परन्तु कभी-कभी अमर से बातें करते-करते वन्दना खो भी जाती थी। अमर आंखों के सामने होता परन्तु रोहित अनिच्छुक तौर पर उसके सामने चला आता था। यह वन्दना की कमजोरी थी या एक स्वाभाविक मांग? वन्दना स्वयं नहीं समझ पाती थी। क्या ऐसा इसलिए तो नहीं था क्योंकि उसके अछूते दिल में पहली बार रोहित ने ही स्थान बनाया था। वन्दना रोहित का विचार आते ही अपना मन झटककर उसे दिल से निकाल देने का प्रयत्न करती। जो बीत गया उसे याद करने से क्या लाभ? मरने वाले भी कभी लौटकर आए हैं? परन्तु कभी-कभी हजार बार मन झटकने के बाद भी रोहित की याद उसके मस्तिष्क का पीछा नहीं छोड़ती थी। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि रोहित ने उसे धोखा नहीं दिया था। उसने तो
शेर सिंह के आदमियों द्वारा उसका अपहरण असफल बनाने तथा उसके खानदान का बदला लेने के लिए डाकुओं का पीछा करते हुए अपनी जान गंवाई थी। ऐसी स्थिति में वह एहसानफरामोश बनकर कैसे रोहित को भूल सकती थी। यदि रोहित ने उसे धोखा देकर छोड़ा होता या उसके जीवन से भाग निकला होता तो हां, तब बात अलग थी। रोहित को धोखेबाज समझकर भूलने में उसे अधिक समय नहीं लगता। इन वास्तविकताओं के पश्चात् वन्दना रोहित को भुलाकर अपने दिल में अमर को प्यार का स्थान देने के पक्ष में थी। आखिर किस लड़की को अपना नया जीवन आरम्भ करने का अधिकार नहीं पहुंचता है? यदि रोहित कहीं गया होता, उसके लौटने की संभावना जरा भी होती तो वह अपना सारा जीवन उसकी याद में प्रतीक्षा करके बिता देती परन्तु रोहित की मृत्यु ने उसके आगे अब किसी प्रकार का प्रश्न ही नहीं रखा था। ठाकुर नरेन्द्र सिंह से वन्दना तथा अमर के दिल की बातें छिपी नहीं रह सकीं। अपना खानदानी सम्मान भूलकर उन्हें प्रसन्नता हुई कि वन्दना के लिए उन्हें अमर से अच्छा गुणी नवयुवक कौन मिल सकता था? अमर के चलते ही आज उनके वंश का सम्मान तथा वन्दना की लाज के साथ उसकी जान भी सुरक्षित थी। यदि वन्दना को कुछ हो जाता तो
शायद उनकी हृदय गति ही बन्द हो जाती। प्रायः वह सोचते कि वन्दना और अमर से बात करके वह उन लोगों का विवाह कर दें और फिर शेर सिंह से बदले की भावना का विचार छोड़कर वह उन दोनों को यहां से लंदन या भारत में ही कहीं दूर भेज दें। ऐसा न हो शेर सिंह अमर का भी वही हाल करे जो उसने रोहित का किया था। ऐसी स्थिति में दोबारा वन्दना के लिए इतनी बड़ी घात सहना असम्भव हो जाता। पहले रोहित और फिर बाद में अमर। रो-रोकर वह निश्चय ही पागल हो जाती। इतना सब सोचने के पश्चात् ठाकुर नरेन्द्र सिंह कुछ सोचकर रुक जाते। अमर पर उन्हें आवश्यकता से अधिक ही विश्वास था। उनकी अन्तरात्मा कहती थी कि अमर उनके बेटे का बदला लेने में अवश्य सफल होगा। अमर तथा अपनी पोती वन्दना को वह दिल ही दिल में आशीर्वाद देते नहीं थकते थे। गांववासियों में भी वन्दना तथा अमर के प्रेम की बातें धीरे-धीरे फैल गईं परन्तु इस जोड़ी से मानो सभी प्रसन्न थे। सभी के आशीर्वाद का दोनों केन्द्र बने हुए थे। गांव वाले सोचते – यदि ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने अपनी पोती का हाथ अमर के हाथ में दे दिया तो वह अपने स्वर्गवासी परम सेवक तथा रक्षक मोहन सिंह का एहसान चुकाने में सफल हो जाएंगे। आखिर अमर के माता-पिता की जान ठाकुर नरेन्द्र
सिंह तथा उसकी पत्नी की जान बचाने में ही तो गई थी। उनकी शुभकामना करते हुए गांववासी यही चाहने लगे कि उन दोनों का विवाह दुर्गापुर में ही हो और दोनों कोठी में सदा रहें ताकि पुलिस के साथ अमर के चलते गांव की रक्षा और मजबूत हो सके। एक दिन लंच पर ठाकुर नरेन्द्र सिंह बैठे तो खाने के साथ-साथ आज का समाचारपत्र भी पढ़ते जा रहे थे। दुर्गापुर गांव शहर से दूर था इसलिए यहां समाचारपत्र देर में और कभी-कभी तो बहुत देर में आता था। अब उनका स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था। अमर की उपस्थिति, उसकी संगति ने उनकी चिन्ता कम करके मानो जीवन की एक नई शक्ति फिर प्रदान कर दी थी। आज वह जैसे ही लंच के लिए बैठे थे कि समाचारपत्र वाला आवाज लगाकर उनकी कोठी के बरामदे में समाचारपत्र फेंक गया था। यद्यपि सुबह रेडियो द्वारा ठाकुर साहब पूरा समाचार सुन लेते थे फिर भी जब समाचारपत्र आता था तो वह हर बात भूलकर समाचारपत्र पढ़ना नहीं भूलते थे क्योंकि समाचारपत्र में स्थानीय समाचार काफी मिल जाता था। ठाकुर नरेन्द्र सिंह के साथ वन्दना ही नहीं अमर भी बैठा लंच कर रहा था। अब अमर उनके साथ ही लंच किया करता था। लंच करते समय अचानक नरेन्द्र सिंह की दृष्टि
समाचारपत्र के एक कोने में गई। शहर में एक फाइव स्टार होटल ‘फिरदौस’ की रजत-जयंती थी। इस शुभ अवसर पर होटल की ओर से विदेशी सभ्यता के अनुसार ‘डाइन एण्ड डांस’ का प्रोग्राम रखा गया था। होटल के अंदर प्रवेश एक अच्छे-खासे शुल्क के साथ था। ठाकुर नरेन्द्र सिंह मुंह के कौर को धीर-धीरे चबाते तथा समाचारपत्र पढ़ते हुए कुछ सोचते रहे। फिर जब कौर समाप्त हो गया तो उन्होंने वन्दना की ओर देखा। ‘बेटी-’ उन्होंने कहा, ‘आज ‘फिरदौस’ की रजत-जयंती है।’ ‘फिरदौस?’ वन्दना ने आश्चर्य से पूछा। बचपन में बहू लन्दन चली गई थी। फिर इतने वर्षों बाद वह भारत लौटी थी इसलिए यह नाम उसे याद भी रहता तो किस सिलसिले में? ‘अरे वही फाइव स्टार होटल-’ ठाकुर साहब ने उसे याद दिलाया। ‘ओह!’ वन्दना को याद आया। बचपन में जब कभी मां उससे मिलने लंदन से आती थी तो प्रायः गांव के जीवन से दो ही दिन में उकता कर उसे ‘फिरदौस’ ले आया करती
थी। वह अपनी प्लेट में कांटे-चम्मच द्वारा निवाला बनाने लगी। ‘उसी होटल की आज रजत-जयंती है।’ ठाकुर साहब ने समाचारपत्र मेज पर वन्दना की ओर सरकाया। बोले, ‘इस रजत-जयंती पर ‘फिरदौस’ में एक विशेष प्रोग्राम है – विदेशी नृत्य का प्रोग्राम, जिसमें ब्यूटी कांटेस्ट के अतिरिक्त और भी बहुत सारी प्रतियोगिताएं सम्मिलित हैं। जब से तुम लंदन से आई हो, आज तक कहीं नहीं गईं। क्यों नहीं आज अमर के साथ वहां जाकर तुम नृत्य द्वारा अपना मन ही थोड़ा बहला लो?’ विदेशी सभ्यता पर आधारित नृत्य का प्रोग्राम? वन्दना चम्मच द्वारा अपने मुंह में अन्न डालने ही वाली थी कि रुक गई। नृत्य के विषय में सुनकर उसे रोहित की याद आना स्वाभाविक था। आखिर रोहित से उसकी पहली भेंट नृत्य के ही प्रोग्राम में तो हुई थी। वह कुछ गम्भीर हो गई। चम्मच में उठाया अन्न उसने प्लेट में वापस रख दिया। खाना छोड़कर वह उठ खड़ी हुई। खिड़की के पास जाकर बाहर के वातावरण को देखने लगी जहां पक्षियों की चूं-चूं किसी रंगीन शाम में बजते मीठे साज से कम न थी। वन्दना की आंखों में नृत्य के वह सारे ही दृश्य घूम गए जो उसने रोहित की बांहों में बिताए थे।